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देवता: इन्द्रः ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣢꣫त्राह꣣ गो꣡र꣢मन्वत꣣ ना꣢म꣣ त्व꣡ष्टु꣢रपी꣣꣬च्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ च꣣न्द्र꣡म꣢सो गृ꣣हे꣢ ॥९१५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् । इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥९१५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡त्र꣢꣯ । अ꣡ह꣢꣯ । गोः । अ꣣मन्वत । ना꣡म꣢꣯ । त्व꣡ष्टुः꣢꣯ । अ꣡पीच्य꣢म् । इ꣣त्था꣢ । च꣣न्द्र꣡म꣢सः । च꣣न्द्र꣢ । म꣣सः । गृहे꣣ ॥९१५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 915 | (कौथोम) 3 » 1 » 8 » 3 | (रानायाणीय) 5 » 3 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १४७ पर सूर्य द्वारा चन्द्रमा के प्रकाशित होने के विषय में तथा परमेश्वर द्वारा हृदयों के प्रकाशन के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ उससे भिन्न व्याख्या दी जा रही है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अत्र ह) यहाँ (त्वष्टुः) प्रदीप्त सूर्य से (अपीच्यम्) बाहर गये हुए प्रकाश को, लोग (गोः नाम) पृथिवी पर नत हुआ (अमन्वत) जानते हैं। (इत्था) इस प्रकार, पृथिवी को मध्य में करके वह प्रकाश (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमण्डल में गिरता है, उसी से चन्द्रमा प्रकाशित होता है। यह इन्द्र परमेश्वर की ही महिमा है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

पृथिवी अण्डाकृति मार्ग से सूर्य की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा करता हुआ पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथिवी के आ जाने से प्रतिदिन चन्द्रमा के सम्पूर्ण गोलार्ध पर सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता। चन्द्रमा का जितना अंश पृथिवी की ओट में आ जाता है, उतने अंश में सूर्य का प्रकाश न पड़ने से वह अंश अन्धकार से आच्छन्न ही रहता है। चन्द्रमा की कलाओं की ह्रास-वृद्धि का यही रहस्य है। अमावस्या को सम्पूर्ण चन्द्र के पृथिवी से ढक जाने के कारण पूरा ही चन्द्रमा अन्धकार से आवृत रहता है और पूर्णिमा को सम्पूर्ण चन्द्रमा के पृथिवी से छूटे रहने के कारण सम्पूर्ण ही चन्द्रमा प्रकाशित रहता है। यही परमेश्वर द्वारा की हुई व्यवस्था इस मन्त्र में वर्णित हुई है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके १४७ क्रमाङ्के सूर्याच्चन्द्रप्रकाशनविषये परमेश्वराद् हृदयप्रकाशनविषये च व्याख्याता। अत्र प्रकारान्तरेण व्याख्यायते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अत्र ह) अत्र खलु (त्वष्टुः) दीप्तात् सूर्यात् (अपीच्यम्) अपगतं प्रकाशम्। [अप अञ्चतीति अपीचिः, तम् अपीच्यम्। पूर्वरूपाभावश्छान्दसः। ततो यण्।] (गोः नाम) पृथिव्यां नतम् (अमन्वत)मन्वते जनाः। (इत्था) इत्थम् पृथिवीं मध्ये कृत्वा स प्रकाशः (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमण्डले पतति, ततः चन्द्रः प्रकाशितो जायते। एष इन्द्रस्य परमेश्वरस्यैव महिमाऽस्ति ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

पृथिवी खल्वण्डाकृतिमार्गेण सूर्यं परितो याति, चन्द्रश्च पृथिवीं परिक्राम्यन् पृथिव्या सह सूर्यमपि परिक्रामति। सूर्यचन्द्रयोर्मध्ये पृथिव्या आगमनात् प्रत्यहं चन्द्रमसः सम्पूर्णे गोलार्धे सूर्यप्रकाशो न पतति। चन्द्रस्य यावानंशः पृथिव्या अवरुद्धो जायते तावत्यंशे सूर्यप्रकाशस्यापतनात् सोंऽशस्तमसावृत एव तिष्ठति। चन्द्रमसः कलानां हासवृद्ध्योरिदमेव रहस्यम्। अमावस्यायां सम्पूर्णस्य चन्द्रस्य पृथिव्या आवृतत्वात् सम्पूर्ण एव चन्द्रोऽन्धकारावृतो भवति, पूर्णिमायां च सम्पूर्णस्य चन्द्रस्य पृथिव्या मुक्तत्वात् सम्पूर्ण एव चन्द्रः प्रकाशितो भवति। इयमेव परमेश्वरकृता व्यवस्था मन्त्रेऽस्मिन् वर्णिता ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।८४।१५, अथ० २०।४१।३, साम० १४७। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं ‘यथा सूर्यस्य पृथिव्या सहाकर्षणप्रकाशादिसम्बन्धाः सन्ति तथैवान्यभूगोलैः (चन्द्रलोकादिभिः) सह सन्ति’ इति विषये व्याख्यातवान्’।